नदियां धरती तुझे बुलाती ।
दुनियदारी नही सुहाती
-बचपन एक दुनिया थी
दुनियादारी कोसो दूर थी
हसी ठीठोली, रुठ मनाती ।
-खुला पंछी कब नभ मे रुका है
कह देने से क्या पर्बत झुका है ।
-नदी ने कब रस्ता बदला है
देखो तो ..पल पल कैसे मानव बदला है ।
अब तो होना चाहिये बस
धरती संग राग रंग और रस ।
सम्भल ले अब तो,
बदल ले खुद को
छोड कृत्रिम जग , कर कुछ मनन
धरती संग हो जा मगन।
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