शनिवार, 6 जून 2020

प्रक्रुति और मानव



नदियां धरती तुझे बुलाती ।
दुनियदारी नही सुहाती 

 -बचपन एक दुनिया थी 
दुनियादारी कोसो दूर थी
हसी ठीठोली, रुठ मनाती  ।

-खुला पंछी कब नभ मे रुका है 
कह देने से क्या पर्बत झुका है ।

-नदी ने कब रस्ता बदला है
देखो तो ..पल पल कैसे मानव बदला है ।

अब तो होना चाहिये बस
धरती संग राग रंग और रस ।

सम्भल ले अब तो, 
बदल ले खुद को 
छोड कृत्रिम जग , कर कुछ मनन
धरती संग हो जा मगन।




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